Path to humanity

Path to humanity
We cannot despair of humanity, since we ourselves are human beings. (Albert Einstein)

Thursday, December 16, 2010

My Love Is Changed


Now, if I don't call you
a glittering starlet of the sky
or a beautiful rose bud.
its not, my Love is fake-
in fact the patterns are so changed.
And now, that your lips are not as pink
which I used to praise
or skin with lines
that was smooth like phrase
my 'love'
for your soul has not changed.
But your words are still so soft
those were soothing to my heart
and your touch is warm
when I shiver in the rain.
believe me 'my love'
"I am alone but still the same.

Monday, October 11, 2010

ये नाम है जो तेरा.....


ये नाम है जो तेरा, मुझको थामे सा रहता है
जब हो जाता हूँ अकेला, धीरे से कुछ कहता है
देता है शक्ति जीने की, सीमाओं में रहने की
फिर ना जाने क्यूँ, आँखों से दरिया बहता है
जब सांसें थम सी जाती हैं, आँखें बंद हो जाती हैं
हौले क़दमों की आहट से, दिल को मेरे छू लेता है
उन काली खाली रातों से, करनी है मुझको दोस्ती
अकेले चलते इन राहों पे मेरा समय भी बीता है

ये नाम है जो तेरा, मुझको थामे सा रहता है
जब हो जाता हूँ अकेला, धीरे से कुछ कहता है

क्यूँ नहीं हो तुम मेरे पास, क्या जानो तुम इसका एहसास
बस नाम यही है तेरा, जो मुझसे बातें करता है
जब आँखें बंद किये मै सपनों में खोया रहता हूँ
ये नाम वहां भी आकर, गुमसुम सा बैठा रहता है
हर पल, हर लम्हा, ना जाने क्या क्या कहता है
खुद को शायद है भुला दिया, फिर भी अच्छा सा लगता है
अब मत रोना ऐ नाम मेरे, वरना अकेला हो जाऊंगा
खुद, खोके मिलना मुश्किल है, स्नेहिल तुमसे कहता है|

(NoteNo part of this post may be published, reproduced or stored in a retrieval system in any form or by any means without the prior permission of the author.)
© Snehil Srivastava

Saturday, September 25, 2010

स्मृतियाँ..........

स्मृतियाँ, 
कभी रुलाती हैं
तो कभी गुदगुदाती हैं
कभी मासूम बच्चा बन, 
छोटा-सा बालक बन 
अपनी तोतली बोली में 
मन की बातें कह जाती हैं !

स्मृतियाँ,
दिलाती हैं याद 
कभी माँ का दुलार, 
तो कभी पिता का प्यार, 
कभी दादी माँ की
और कभी नानी माँ की 
कहानी बनकर 
ले जाती हैं 
परियों के लोक,
जहाँ दिखाई देते हैं 
चाँद और सितारे, 
जो लगते हैं मन को 
मोहक और प्यारे, 
दिखाई देते हैं वहाँ
रंग-बिरंगे फूल 
जहाँ नहीं होती, 
उदासी की धूल 
फूल अपनी सुगंध 
बिखेरते हैं चारों ओर, 
औरों को भी सिखाते हैं 
सुगंध फैलाना, 
मनभर खुशबू लुटाना 
सबको हँसाना 
और गुदगुदाना 
तन के साथ-साथ 
मन को भी सुंदर बनाना !

स्मृतियाँ, 
कभी ले जाती हैं 
उस नन्हे संसार में 
जहाँ प्यारी-सी 
दुलारी-सी गुड़िया है 
उसका छोटा-सा घर है !
और है 
भरा-पूरा परिवार 
नहीं है दुख की कहीं छाया, 
पीड़ा की कोई भी लहर 
यहाँ-वहाँ कहीं पर भी 
कभी दिखाई नहीं देती !

स्मृतियाँ,
जब ले जाती हैं 
भाई-बहिनों के बीच 
जहाँ खेल है,तालमेल है 
तो कभी-कभी 
बड़ा ही घालमेल है !

स्मृतियाँ,
ले जाती हैं 
दोस्तों के बीच 
जहाँ पहुँचकर 
देती हैं अनायास
ऊँची उड़ान मन-पतंग को, 
देती हैं अछोर ऊँचाइयाँ, 
तो कभी कटी पतंग-सी 
देती हैं निराशा मन को, 
कभी उड़नखटोले में
सैर करातीं हैं,
कभी ले जाती हैं
अलौकिक दुनिया में
जगाती हैं मन में आशा 
रखती हैं सदैव दूर दुराशा !

स्मृतियाँ ,
खो जाती हैं 
भीड़ में बच्चे की तरह 
जब मिलती हैं 
तो माँ की तरह 
सहलाती हैं,दुलारती हैं 
और रात को 
नींद के झूले में 
मीठे स्वर में 
लोरी सुनाती हैं 
ले जाती हैं 
कल्पना के लोक 
जहाँ मन रहता है 
कटुता से दूर,बहुत दूर, 
मन बजाता है 
खुशी का संतूर !
दुःख की अनुभूतियाँ 
मन में नहीं समाती हैं; 
सुख की कोयल 
कभी गीत गाती है 
तो कभी 
मधुर-मधुर स्वर में 
गुनगुनाती हैं,
और कभी
पंचम स्वर में
जीवन का 
मधुर राग सुनाती हैं





द्वारा- डॉ. मीना अग्रवाल

देश.........

वजन करने की मशीन स्टेशन पर दिखी जब,
कितना भारी हुआ हूँ जानने की इच्छा हुई तब.
सिक्का डाला तो रिज़ल्ट निकलकर सामने आया,
जिसे पढ़कर मेरा मन थोड़ा सा चकराया.
सामने साफ दिख रहा था कि मैं हो गया हूँ भारी,
नीचे लिखा था- "आपके व्यक्तित्व की पहचान है ईमानदारी.
दोनो सच है इस पर नही हो रहा था विश्वास,
क्यूंकी दोनो बातों में था एक अजीब विरोधाभास.
भार के बारे में अब पुराना चलन नहीं रहा,
ईमानदारी में भई आजकल वजन नहीं रहा.
मंहगाई-मिलावट के जमाने में पौष्टिक खाना पाने से रहे,
इस कारण सिर्फ़ खाना खाकर तो हम मुटाने से रहे.
मंहगाई तो आजकल आसमान को छुने लगी है,
पानी भी तो बोतल बंद होकर मिलने लगी है.
शायद ये भी हो कल को आसमान में सूरज भी ना उगे,
कोई कंपनी उसे खरीद ले और धूप मुनाफ़े पे बेचने लगे.
यह सब सोच कर ये लगा यह मशीन मज़ाक कर रही है,
या फिर यह भी एक आदमी की तरह बात कर रही है.
आदमी रूपी वाइरस इसके अंदर प्रवेश कर गया है,
इसीलिए अब ये भी चापलूसी करना सीख गया है
इसबार मशीन को चेक करने के लिए सिक्का डाला,
पर अबकी तो उसने चमत्कार ही सामने निकाला,
मेरा वजन तो फिर से उतना ही दिखा था,
पर नीचे में तो कुछ अजब ही लिखा था.
लिखा था- "आप ऊँचे विचार वाले सुखी इंसान हैं"
मैं सोचा अजीब गोरखधंधा है कैसा व्यंग्यबाण है.
विचार ऊँचे होने से भला आज कौन सुखी होता है,
सदविचारी तो आज हर पल ही दुखी होता है.
बुद्ध महावीर के विचार अब किसके मन में पलते हैं,
गाँधीजी तो आजकल सिर्फ़ नोटों पर ही चलते हैं.
ऊँचा तो अब सिर्फ़ बैंक बॅलेन्स ही होता है,
नीतिशास्त्र तो किसी कोने में दुबक कर रोता है.
सदविचार तो आजकल कोई पढ़ने से रहा,
जिसने पढ़ लिया उसका वजन बढ़ने से रहा.
आइए आपको अब सामाजिक वजन बढ़ने का राज बताते हैं,
जब हम दूसरों पे आश्रित होते हैं लदते हैं तभी मूटाते हैं.
नेता जनता को लूटते हैं और वजन बढ़ाते हैं,
साधु भक्तों को काटते हैं अपना भार बढ़ाते हैं.
बड़े साहेब जूनियर्स को काम सरकाते हैं इसलिए भारी कहलाते हैं,
कर्मचारी अफ़सर पर काम टरकाते हैं इसलिए भारी माने जाते हैं.
नहीं होता आजकल वजन किसी ईमानदार सदविचारी का,
हलकापन है नतीजा आज मेहनत, ईमान और लाचारी का

By- Deepak

Thursday, July 8, 2010

My Hands Are Shivering


My hands are shivering
I wanna die..
My head is aching..
I wanna cry..
Want to say a lot of things..
But feeling a bit shy
I don't know, what happened to me..
I think, I should try
Kiddo..will you be wid me..
And say me only hie..
Whenever I need to hear, and don't ever say bye...

Sunday, June 20, 2010

दोस्ती फिर से..

याद है कुछ ऐसी...जैसे सालों पुरानी बात हो...
बात है कुछ ऐसी, जैसे...कितनी लम्बी रात हो..
बस अभी अभी मिले हम..
ना बिखरने के लिए फिर कभी..

ना जाना छोड़कर मुझको..औरों कि तरह तुम बच्ची....
कहना है बस यही..
कोशिश करूँगा बदलने की....
पर सच्चे दिल से कहना..क्या ज़रूरत है इसकी?

शब्दों को ध्यान से सुना मैंने.
जो कहा सच कहा तुमने..
पर शायद हम..एक जैसे हे हैं...
जैसे गुड़िया पहने हो ढेर सारे गहने..

होती है वो सिमटी सी..सकुचाई सी...दुनिया से अनजानी सी..
रहती है वो यहाँ वह...बहते हुए पानी सी..
अभी मै क्या कहू...हुए हो कुछ खास तुम..
बस इतना हे कह दूँ ...जैसे हो बिलकुल पास तुम...!!

Sunday, April 25, 2010

Missing .U Didu...!!



जो तुम कहो...बस वही
और कुछ भी नही..!


हँसता था मै तब तब
जब इश्वर ने छीन लिया था मुझसे सब
फिर एक नन्ही सी परी..आई
और फिर आँखों में रौशनी सी छाई
लगा जैसे सब कुछ ठीक हो जायेगा
मन का हर सपना पूरा हो जायेगा
फिर मैंने उसे कहा तुम मेरी DIDU  हो
उसने पुछा, क्या तुम मेरे भाई नहीं हो..?
मै बोला , हाँ हूँ मै तुम्हारा भाई
अब नही रह पाउँगा,इतनी ख़ुशी थी पायी
क्यों चले गये हो DIDU तुम मुझसे दूर
क्या तुम हो इतने ही मजबूर
बस तुम खुश रहो, हमेशा है सोचा
ना कहूँ तुमको, कुछ भी, हो तुम छोटा सा बच्चा
मै शायद हूँ इतना ही पागल
जो तुम्हे हर वक़्त करता हूँ, शब्दों तले बोझिल
नही है मेरा ये प्यार बोझ DIDU
तुम सच में हो मेरी, और सिर्फ मेरी DIDU
अब क्या करूँ कि तुम वापस आ जाओ
इतना, कि कभी दूर ही ना जा पाओ
पर शायद ये एक बंधन होगा
और एक झूठा सा सच रहेगा
समझ नही पा रहा अब और क्या लिखूं
या शब्दों को यूँ अधूरा ही रहने दूँ.....??



नही है मेरा ये प्यार बोझ DIDU
तुम सच में हो मेरी, और सिर्फ मेरी...DIDU !! 

Wednesday, April 14, 2010

Miss ya.........!!!!!!!



wait
let me write something
it is..
that..
that day i said,
something about hope..
hope u remember it...
so
hope is a gud thing..
and
I am still on my words..
hope we will always be very good friends....
who will always say...
jai ho..
radhey radhey
and
radhey radhay...
that is it...
irrespective
the reasons...
and conditions...
and anything....
I just won't mind anything..
I am saying you...
and i believe in it..
hope you will too...
missing you this time...
really....!!!!!

Sunday, April 4, 2010

ठंडा सूरज


अभी अभी आँखों में पानी सा महसूस हुआ
की जैसे मैंने बिलकुल ठंडे सूरज को छुआ
ठण्ड भी कभी कभी गरम लगती है
हम जागते हैं और आँखें सोती हैं
मन सहजता से दूर हो जाता है
ह्रदय खुद से मजबूर हो जाता है
स्वयं के उत्तर अब प्रश्न बन गए हैं
और ना जाने गहरे समंदर में कहा खो गये है....

Sunday, February 28, 2010

दो सच्ची कहानियां...

एक डोली चली, एक अर्थी चली।
फर्क इतना है, सुनले ओ प्यारी सखी,
चार तेरे खड़े, चार मेरे खड़े,
फूल तुझ पे पड़े, फूल मुझ पे पड़े, 
फर्क इतना है, सुनले ओ प्यारी सखी,
तू विदा हो रही, मैं जुदा हो रही,

एक डोली चली, एक अर्थी चली।
मांग तेरी भरी, मांग मेरी भरी,
चूड़ी तेरी हरी, चूड़ी मेरी हरी,
फर्क इतना है, सुनले ओ प्यारी सखी,
तू हँसा के चली, मैं रुला के चली,

एक डोली चली, एक अर्थी चली,
तुझे पाके पति, तेरा खुश हो गया,
मुझे खो  के पति मेरा रो रहा,
फर्क इतना है, सुनले ओ प्यारी सखी,
तू बसा के चली मै उजाड़ के चली,

एक डोली चली, एक अर्थी चली।
फर्क इतना है, सुनले ओ प्यारी सखी,
तू बसा के चली मै उजाड़ के चली,

द्वारा -सूरज सिंह

ऑटो रिक्शा में लड़की


मैं आम तौर पर बाइक से सफ़र करता हू, लेकिन कभी अगर ऑटो में जाना होता है तो तरह तरह के किस्से देखने को मिल जाते है। इसी में एक है ऑटो रिक्शा में लड़की के महत्त्व का किस्सा। मैं नॉएडा से गाज़ियाबाद अपने घर ऑटो से जा रहा था, शाम का वक़्त था भीड़ भी ज्यादा थी। हर किसी को घर जाने कि जल्दी थी। कैसे भी हो घर पहुँचो। ऐसे में मैंने देखा कि हमारे ऑटो फुल हो गया। लेकिन उसमे लड़की नहीं थी। तभी अचानक न जाने एक खूबसूरत लड़की न जाने कहाँ से आ गयी। और ऑटो वाले से गाज़ियाबाद जाने कि बात कि ऑटो वाले ने तभी बगैर कुछ सोचे समझे ऑटो से एक सवारी को फ़ौरन उतरने कि बात कह दी। लड़का देखने में सज्जन था, शायद तभी आराम से बगैर कुछ कहे ऑटो से उतर गया। और उस जगह लड़की बैठ गयी। लड़की जब ग़ाज़ियाबाद में उतर गयी। तब मैंने ऑटो वाले से पूछा यार तुमने पहल ऑटो में लड़के को उतार कर लड़की को जगहे क्यों दी। जबकि दोनों बराबर पैसे देते। इस पर ऑटो वाले का जवाब सुनकर मैं हैरान हो गया। उसका जवाब था कि भाई साहब आपको नहीं पता लड़की को ऑटो में बैठाने से सवारी ज्यादा मिल जाती है। इसीलिए मैंने उस आदमी को उतार दिया। लड़की के ऑटो में होने से अन्य सवारियों का भी मन लगा रहता है। और सवारी पैसे देने में चिक चिक भी नहीं करती। और अगर ऐसा करने में मुझे ज्यादा पैसे मिलते है तो मैं ऐसा क्यों न करू। आप खुद ही बताये......
तब मैं ऑटो में लड़की के महत्व को समझा

सूरज सिंह।

अलविदा...

बहुत दिनो से मैंने
अपना फोन को स्विच आफ नही किया
इस डर से कंही उसी वक्त तुम मुझे फोन करके
यह बताना चाह रही हो कि
मै अब उतना ही आउटडेटड हूं
तुम्हारे जीवन मे
जितना कि
तुम्हारे कम्पयूटर का कभी न डिलीट होने वाला
एंटी वायरस
हर एसएमएस पर चौकना अभी तक जारी है
इस उम्मीद पे कि तुम मेरी घटिया शायरी और
फारवर्ड किए गये संदेशो पर आदतन
वाह-वाह के दो शब्द भेज रही होगी
दवा के माफिक
बहुत दिनो से मुझे एक आदत और
हो गयी है मै बिना बात ही लोगो से बातचीत मे
तुम्हारा जिक्र ले आता हूं
चाहे बात वफा की हो या बेवफाई की
सुनो ! मैने अभी-अभी सोचा है कि मैं
अपना सिम बदल लूं
ताकि जब कभी हम मिले तो
तुमसे औपचारिक रुप से
यह सुन सकूं कि
बिना बताए नम्बर क्यों बदल लिया
तुम्हे बिना बताए किए जाने वाले
कामों की एक लम्बी लिस्ट है
मेरे पास
और तुम्हारे पास इतना भी वक्त नही
कि मुझसे बोल के जा सको
अलविदा....

डॉ.अजीत
http://www.shesh-fir.blogspot.com/

होली मे जलना होता है...??

यह चिड़िया गाते-गाते
चुप हो जाती है और
मौन में अपनी दुनिया बसाती है

क्या सच सुनाने के लिए भी दुनिया को सुनना होता है

यह चिड़िया उड़ते-उड़ते
खड़ी हो जाती है और
मुझे गोल-गोल घुमाती है

क्या दुनिया नापने के लिए अपने अंदर चलना होता है

यह चिड़िया चुगते-चुगते
मन के सारे दुख चुग जाती है और
पेड़ से अक्सर यह बुदबुदाती है

क्या शैतान परिंदों को भी महसूस अकेलापन होता है

हर बादल बरसने के लिए पैदा नहीं होता
हर बारिश फगुआ सा नहीं भिगोती

होली खेलने के लिए क्या जरूरी होली में जलना होता है

घोंसला लेकर उड़ने वाली
यह चिड़िया मुझसे पूछती है

क्या प्रेम करने के लिए प्रेम में बार-बार जलना होता है
pawan nishant
http://yameradarrlautega.blogspot.com

Saturday, February 20, 2010

"जरुर आना..."

बीत गया बचपन सारा
इन किताबों से मेरा मन हारा.
मैं रूठी...
बचपन रूठा
रूठा मेरा मन...
प्यारे बचपन
तुम वापस तो आओगे नहीं
पर समय से समय लेकर
मुझे अलविदा कहने जरुर आना
जरुर आना...
जरुर आना...
-Anonymous

Thursday, January 21, 2010

कहानी-"शिला"

'ज़िन्दगी का अंत एक शरुआत होनी चाहिए." जहाँ से कई और जिंदगियां यथार्थ बन सकें. लेकिन इनमें कहीं भूल से भी कोई झूठा शब्द ना हो वरना यथार्थता का कोई मोल नहीं रह जाता है.
हाँ तो ये बांतें शिला से जुडी हुई हैं, जो खुद का आधार कहीं खोज रही है. अब ये शिला कौन है कहाँ से आई है, ये तो मुझे पता नहीं लेकिन वो कहाँ है और कहाँ जाना चाहती है ये सब वो खुद ही मुझसे अंकित करवा रही है. उसकी हमेशा से चाह रही है की कोई उसे भी सुने, चाहे वो कुछ भी ना कह रही  हो. लेकिन सीधे तरीके से हर चाह पूरी होना इतना आसन तो नहीं ही होता है.
तो इस बार मैंने उसे बिना बताये, दुनिया में, उसकी छवि को जस का तस रखने की कोशिश की है.
अब मुझे शिला को उसके प्रथम दिन से ही आप सबसे मिलवाना चाहिए. ठंडक के महीने में, (साल तो उसने मुझे लिखने को मन कर रखा है) शिला का जन्म हुआ. बचपन ६ वर्ष तक सामान्य था, इसमें कुछ खास ऐसा नहीं है जो यहाँ लिखा जाये. लेकिन इतना तो ज़रूर है की उसके ये ६ वर्ष भी बस यूँ ही नहीं रहे होंगे. मैं ये बात इतने विश्वास से शायद इसलिए कह रहा हूँ क्यूंकि शिला को जहाँ तक मैंने जाना है, वो हर क्षण, कई क्षणों में जीने में विश्वास रखती है. अरे भाई वो भी तो एक इंसान ही है, अब अपना फायदा नहीं देखेगी क्या ?
शिला ने हमेशा चाहा की सब कुछ ठीक हो जाये लेकिन हर चाह का पूरा होना इस दुनिया में तो आसन नहीं दिखाई पड़ता है.  शिला अपनी चाह सच्ची लगन से पूरा करने में लगी रही है, तब से, जब से उसे इन सारी बातों का मतलब भी नहीं पता था. मैं हमेशा दुआ करता हूँ की शिला की ये सच्ची सोच यथार्थ की ज़मीन पर आ जाये क्यूंकि ऐसा होने से ना सिर्फ शिला बल्कि और भी शिलाएं इंसान बनकर अपनी पूरी ताकत से पत्थरों में जीवन का संचार कर सकेंगी.

"कोई और...?"

सपनों में कोई अपना नहीं होता इसलिए सपना केवल सपना नहीं होता है. सपनें हमारे अंतःकरण में छिपे कोरों का दर्पण होते हैं, मौन दर्पण...
     
     रिक्शे पर दिशा बैठी हुई है, फ़ोन पर माया से बांतें कर रही है. साथ में साहिल चल रहा है, साइकिल पर यानी मैं. बांतें मेरी हैं और बात दिशा कर रही है ?
दिशा- "और कैसी हो, कब आओगी ?"
माया- "ठीक हूँ, बढ़िया है सब, जल्दी ही !"
रहा नहीं गया साहिल से.
"मुझे दो फ़ोन, मैं बात करता हूँ"- साहिल बोला.
साहिल- "हाँ.. क्या हाल हैं ?
माया- "मैं ठीक हूँ, १७ को जाना है."
साहिल- (अरे)
लगा तो कुछ लेकिन...!!!
माया- "तुम कैसे हो?"
साहिल- "मै अच्छा हूँ."
माया- और...दोस्त...!!!
साहिल- "तुम ? मुझे लगा मैं माया से बात कर रहा हूँ, तमन्ना तुम?"
तमन्ना- "हाँ दोस्त, तमन्ना."
'जैसे कुछ मिल सा गया, या शायद कुछ खो गया'- साहिल सोचता रहा और फ़ोन कट गया...